बनारस के घाटों का संक्षिप्त इतिहास
रिपोर्ट-अजीत पाण्डेय.
बनारस के घाटों का संक्षिप्त इतिहास
बालाजी बाजीराव नाना साहेब ने बांधा दशाश्वमेध घाट आलीशान, वाराणसी के वैभव को मिला मान
मराठा साम्राज्य के राजपुरुष बालाजी बाजीराव (नाना साहेब) का जिन्होंने सन 1748 के आस-पास गंगा के कंठहार के रूप में शोभित काशी के ऐन मध्य में मणिबंध (राकेट) की तरह सुशोभित एक आलीशान घाट बंधवाया। इस नगरी के वैभव को एक नई पहचान दी उसके सौंदर्य में चार चांद लगाया।
चार चिडिय़ा चार रंग, पिजड़े में जाकर एक रंग इस कहावत को लेकर रंचमात्र भी संशय हो तो नजीर के तौर पर अपनी काशी के एकात्म दर्शन को निहार लेना भर काफी होगा शंका समाधान के लिए। कल्पना करिए इस नगरी के लघु भारत स्वरूप यहां सदियों पहले से लोग प्रांत-प्रांतांतरों से आते रहे। एक मन-एक प्राण होकर अपने यत्नों से देवाधिदेव महादेव की तीर्थपुरी का वैभव सजाते रहे। काशी के श्रीसंवर्धन में गुजरात, बंगाल, ओडिसा, तमिलनाडु, कर्नाटक व आंध्र के साथ उस महाराष्ट्र का भी महनीय योगदान रहा है जिसके संवत 936 से भी पहले काशिस्थ होने के प्रमाण पंच द्रविड़ सभा के धूसर हो चले दस्तावेजों में आज भी अंकित हैं।
काशिवास का पुण्य पाने तथा इसके ऋण मोचन की कामना से इस नगरी का श्रेयस बढ़ाने में मराठा साम्राज्य के भोसला, सिंधिया तथा पेशवा रजवाड़ों के श्रीमंतों की लंबी सूची है। इन्हीं में एक चमकता नाम है मराठा साम्राज्य के राजपुरुष बालाजी बाजीराव (नाना साहेब) का, जिन्होंने सन 1748 के आस-पास गंगा के कंठहार के रूप में शोभित काशी के ऐन मध्य में मणिबंध (राकेट) की तरह सुशोभित एक आलीशान घाट बंधवाया। इस नगरी के वैभव को एक नई पहचान दी, उसके सौंदर्य में चार चांद लगाया। काशी के घाटों का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले स्मृति शेष पं. शंभूनाथ मिश्र के लिखे के अनुसार उस समय इस घाट का नामकरण क्या हुआ इसकी यथेष्ठ जानकारी नहीं मिलती। इतिहास के पन्ने इसके बाद का जिक्र जरूर करते हैं कि द्वितीय शताब्दी में कुषाणों के पराजित होने पर विजेता भारशिव (राजभर) राजाओं ने दस अश्वमेध यज्ञ के समापन के बाद इसी घाट पर स्नान किया। इसके पश्चात यह घाट दशाश्वमेध घाट के नाम से विख्यात हुआ (इतिहासकार पीके जायसवाल के अनुसार)। आज भी काशी के 84 घाटों में से अग्रगण्य पांच घाटों क्रमश: पंचगंगा, मणिकर्णिका, केदारघाट, असि घाट तथा दशाश्वमेध घाट के क्रम में इस स्थापत्य वैभव की ख्याति व महात्म्य सर्वोपरि है।
तीर्थत्रयी को महाराष्ट्र से जोडऩे का ऐतिहासिक प्रस्ताव
शेष स्मृति पं. लक्ष्मण नारायण गर्दे ने अपने एक लेख में चर्चा की है कि यशस्वी मराठा श्रीमंत बालाजी बाजीराव ने काशी, गया तथा प्रयाग आदि तीर्थों की प्रबंधन की दृष्टि से इस तीर्थत्रयी को मराठा राज्य को सौंपने का प्रस्ताव तत्कालीन दिल्ली दरबार को भेजा था। कांटा गांवकर पत्रावली के अनुसार इसमें संभवत: मथुरा का नाम भी प्रस्तावित था। इस प्रस्ताव का जिक्र सन 1745 में काशी के प्रतिष्ठित मराठी दीक्षित परिवार के प्रतिनिधि की दिल्ली दरबार में उपस्थिति से संबंधित पत्रावली में भी मिलता है