हर जगह है सन्नाटा,
नहीं बचा है कुछ और
हां अब खत्म हो गया,
रूठने मनाने का दौर
सब अपने थे,
गैरो को अपना बनाने की थी छटपटाहट
जो अभी तक थे दुश्मन,
उन्हे भी थी अपना बनाने की चाहत
काम हो गया खत्म,
सब पहुंच गए अपने ठौर
हां अब खत्म हो गया
रूठने मनाने का दौर
सब दरिया थे पर बातें
समंदर की करते रहे
कुछ दिनों से बात कहते रहे
और बात सहते रहे
अभी तो उन्हे उम्मीद है
कि बनेंगे वही जम्हूरियत के सिरमौर
हां अब खत्म हो गया
रूठने मनाने का दौर
क्यों पड़ा है वीरान है शहर,
अभी तक वादों की झड़ी थी
कोई तनहा नही था ,
हर जगह महफिल सजी थी
दावे, वादे, अपने, पराए सब गए,
बचा नही है कोई और
हां अब खत्म हो गया
रूठने मनाने का दौर
मनोज यादव कवि